भ्रष्टाचार की खूनी छत से उठते सवाल
उत्तर प्रदेश में गाज़ियाबाद ज़िले के मुरादनगर नगर पालिका में एक बार फिर भ्रष्टाचार ने खून की होली खेली । दिवंगत आत्मा को विदाई देने गए पचीस परिजन और शुभचिंतक श्मशान में बने शेड की छत गिरने से खुद दिवंगत हो गए । परम्परागत तरीके से ईओ, जेई व सुपरवाइजर को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया । ठेकेदार भी गिरफ्तार हुआ । मुख्यमंत्री ने दुर्घटना में मारे गये लोगों के आश्रितों को मदद करने का आश्वासन दिया और उच्चस्तरीय जांच की घोषणा की । सरकार की त्वरित कार्यवाही प्रशंसनीय है । अब इस कड़ी कार्यवाही से राजनेता, नौकरशाह और ठेकेदारों का गठजोड़ क्या सबक लेता है, यह तो भविष्य के गर्भ में है ।
ऐसा नहीं है कि मुरादनगर में घटी यह पहली खूनी घटना है । इससे पहले वाराणसी में निर्माणाधीन फ्लाईओवर ढह गया जिसमें 18 लोग मारे गए । तीन महीने बाद बस्ती ज़िले में एक फ्लाईओवर गिरा । इसके एक साल बाद चंदौली जिले में कर्मनाशा नदी पर बना एक पुल क्षतिग्रस्त हो गया । ये सिलसिला अनवरत ज़ारी है । इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की सरकार किस पार्टी की है । सरकार का या विभाग का मुखिया कितना सख्त है ।
देश के हुक्मरानों की करतूतों के कारण फोर्ब्स पत्रिका ने भारत को एशिया का सबसे भ्रष्ट देश बताया था । ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने 2019 में भारत को भ्रष्टाचार के पैमाने पर 80 वां नम्बर का भ्रष्टतम देश साबित किया । न्यूजीलैंड के लेखक ब्रायन भारत की संस्कृति को स्वार्थ की संस्कृति बतातें हैं । वे कहतें है कि भारत में भ्रष्टाचार एक सांस्कृतिक पहलू है । भारतीयों को लगता है कि भ्रष्टाचार के बारे में कुछ भी अजीब नहीं है । यह हर जगह है । आजादी के बाद भ्रष्टाचार की प्रदूषित धारा उच्च वर्ग से होते हुए समाज के निचले तबके तक पहुंच गयी है । अस्सी के दशक तक शहरों के इर्द गिर्द सिमटा यह पाप अब लोकतंत्र का लबादा ओढ़कर गावों की गलियों में जा पहुंचा है । लोकतंत्र के चुनावी समर में इस दीमक का नाश करने का वादा करने वाले दल रंगा सियार बन गए । भ्रष्टाचार का रावण उसी तरह खड़ा अट्ठहास कर रहा है । भ्रष्टाचार को शिष्टाचार स्वीकारना बेबसी नहीं शगल बन गया है ।
केंद्रित करते हैं, उत्तर प्रदेश के सिविल कार्यों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कुछ कारणों पर । लोक निर्माण विभाग के अव्यवहारिक मानकों से इसकी शुरुआत होती है । यह विभाग मुख्य रूप से सड़क बनाने वाली संस्था है लेकिन इसको प्रदेश में सभी प्रकार के निर्माण कार्यों का मानक बनाने की ज़िम्मेदारी दे दी गयी है । अपने त्रिनेत्र से इसने सीमेंट के एक बोरी का दाम 250 रुपये और एक किलो स्टील का दाम 35 रुपये निर्धारित कर रखा है । जबकि वास्तविक बाज़ार मूल्य 450 रुपये और 55 रुपये है। अर्थात टेंडर के बाद काम करने वाले ठेकेदार को एक बोरी सीमेंट पर अस्सी फीसदी का और एक किलो स्टील पर 57 फीसदी का नुक्सान होगा । सरकार द्वारा ठेकेदार का लाभांश 15 फीसदी तय किया गया है । टेंडर खरीदने, टेंडर भरने की प्रक्रिया में, बॉन्ड के लिए स्टाम्प शुल्क और इनकम टैक्स टीडीएस पर ठेकेदार का पांच प्रतिशत खर्च हो जाता है । उसको आवंटित कार्य के कुल मूल्य का 15 से 35 प्रतिशत हिस्सा कमीशन के रूप में सम्बन्घित विभाग को देना होता है । कार्य कराने के लिए पूरी लागत ठेकेदार को लगानी पड़ती है जबकि अग्रिम भुगतान और रनिंग पेमेंट का प्राविधान है । इन परिस्थितियों में जब ठेकेदार कार्य स्थल पर काम शुरू करता है तो कुछ स्थानीय पत्रकार, छुटभैये नेता, दबंग कभी कभी माननीय जनप्रतिनिधि भी चढ़ावा चाहतें हैं । उत्तर प्रदेश सरकार को चाहिए की एक उच्च स्तरीय कमेटी गठित करके, ऊपर उल्लेखित परिस्थितियों में मानक के अनुरूप कार्य करने वाले और जेल जाने का जोखिम उठाने वाले ठीकेदारों का चयन करके ही कार्यों का आवंटन करना चाहिए !
ऐसा नहीं है कि सिविल निर्माण विभाग में व्याप्त इस भ्रष्टाचार से कोई भी जनप्रतिनिधि, नौकरशाह या मीडिया वाकिफ नहीं है । बस उसको दर्द नहीं है क्योंकि मामला अपने पराये का है । जनता के टैक्स की गाढ़ी कमाई को वो अपना नहीं मानते हैं बल्कि उससे अपने वैभव को समृद्ध करने के फिराक में रहतें हैं । एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि क्या भ्रष्टाचार के शिष्टाचार बनने की प्रक्रिया में लोकतंत्र भ्रष्टाचारियों की रखैल बनकर रह जाएगी ?
रवीन्द्र प्रताप सिंह
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