मज़दूरों के महाप्रवास की महामारी झेलता भारत
भारत में कोरोना महामारी बनेगी या नहीं यह भविष्य के गर्भ में है लेकिन मज़दूरों का पलायन महामारी बनकर कहर बरपा रहा है , यह स्थापित सत्य है। इस पलायन ने देश के सत्तधीशों की कलई खोलकर रख दी है। सत्ता के संरक्षण में नौकरशाही ने देश के मज़दूरों के हितों का जो सुन्दर चित्रण किया था सब स्याह हो गया। प्रधानमंत्री मोदी का हवाई चप्पल वालों को हवाई यात्रा कराने का सपना चकनाचूर हो गया। भूख-प्यास और भय में अपने घरों की तरफ पैदल, रिक्शा और साइकिल से चल पड़े इन राष्ट्र निर्माताओं की चप्पलें ही टूट गयीं। अंतर्राज्यिक प्रवासी श्रमिक अधिनियम क्वारंटाइन हो गया। प्रवासी श्रमिकों के अधिकार का उल्लू कोरोना के वायरस खोजने लगा। सजा एवं दण्ड घर में सोशल डिस्टेंसिंग मनाते हुए रामायण और महाभारत से अभिभूत होने लगे।
बस चल रहा था तो देश का अन्नदाता। उसे किसी से शिकायत नहीं थी लेकिन उनके चलने से शिकायत थी क्योंकि अंग्रेज़ी क़ानून महामारी रोग अधिनियम के तहत लॉकडाउन हो चुका था। उल्लंघन करने पर लोकसेवकों ने लोक की हड्डी तक तोड़ देने या जेल भेज देने का ब्रितानी फरमान ज़ारी कर दिया था। पकडे जाने पर सरेआम सड़क पर बैठाकर खतरनाक रसायन से नहला दिया। इन हालातों में भूखी प्यासी जनता अपने अधिकार की मांग कैसे कर सकती है?
टेलीविज़न पर मरकज़ पर संग्राम मचा था। चीन के षड्यंत्र से निपटने की योजना का खुलासा किया जा रहा था। कोरोना जंग में यूरोप और अमेरिका को पीछे छोड़ने के कसीदे पढ़े जा रहे थे लेकिन अगर चर्चा नहीं हो रही थी तो पलायन कर रही देश की एक तिहाई जनसंख्या की। सारे श्रम क़ानून इनको दो जून की रोटी नहीं दिला पाएं। सरकारें स्थानीय स्तर पर सुरक्षा देने में विफल रहीं। ऐसी हालत में ये मज़बूर मज़दूर अगर अपने घर पहुंचने के मूल अधिकार के तहत निकल पड़े तो टेलीविज़न ने उनको अराजक और साम्प्रदायिक बता डाला। इनके पक्ष में आवाज़ उठाने का ठेका लेने वाले 59,000 पंजीकृत मज़दूर संघ कोमा में चले गए। विपक्षी पार्टियों ने अखबार और सोशल मीडिया पर खानापूर्ति कर ली। यदा-कदा फोटो खिचवाने के शर्त पर कुछ समाजसेवी भोजन-पानी का प्रबंध कर रहे थे।
मज़दूर के पास सत्ता को देने के लिए एक वोट के सिवाय कुछ भी तो नहीं है। वो भी राष्ट्रवाद, धर्म, जाति, अगड़े-पिछड़े, दलित आदि उन्मादी नारों में फंस जाता है। अगर नहीं फसें तो एक पैकेट देशी या चंद नोट तो हैं ही। फिर भी नहीं बिके तो सुरक्षा का संकल्प लेने वाली पुलिस है। सत्ता राजनीति से चलती है और राजनीति धन से। जिसके पास धनाभाव हो वही तो मज़दूर है! ऐसे हालात में मज़दूर एक मज़बूर के सिवाय कुछ भी तो नहीं है।
असल में सारा खेल पैसे का है। देश के 71 फीसदी अर्थ पर एक फीसदी लोगों का कब्ज़ा है। जो अधिकतर उद्योगपति हैं। इनके पास रुपया व्यापार से आता हैं। यही लोग उत्पादन करवातें हैं। इनके कंपनियों की बैलेंस शीट से देश के सकल घरेलू उत्पाद का निर्धारण होता है। इनके रोज़गार देने से देश में बेरोज़गारी दर घटती है। यही लोग आयात-निर्यात करतें है जिससे विदेशी मुद्रा आती है। बैंकों का भविष्य इनके जमा और निकासी पर निर्भर है। इनके कागज़ात देश के आर्थिक विकास की दिशा और दशा तय करतें है। ऐसे कुबेरों की पूजा के बिना सत्ता का सञ्चालन संभव नहीं है।
मज़दूर उद्योग की जीवन रेखा और अर्थ व्यवस्था की रीढ़ हैं। उत्पाद बनने से लेकर अंतिम ग्राहक तक पहुंचाने में मज़दूर अहम् भूमिका निभातें हैं। ऐसे में उनका पलायन पूरी अर्थ व्यवस्था को बर्बाद कर देगा, इस बात से सरकार और उद्योगपति सभी परिचित हैं। कहीं मज़दूरों के महाप्रवास को रोकने का यही कारण तो नहीं था? देर से ही सही सरकारों ने इन प्रवासी मज़दूरों के घर वापसी का कार्यक्रम तो चलाया लेकिन ऊँट के मुँह में जीरा जितना। ये भी राजनीतिक दखलंदाज़ी, टीवीबाज़ी और नौकरशाही की संवेदनहीनता की भेंट चढ़ गया।
इस विपत्तिकाल में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, गोवा, महाराष्ट्र और ओडिशा सरकार द्वारा जल्दबाज़ी में श्रम कानूनों में किए गए अस्थाई बदलाव शंका पैदा करतें हैं। हालांकि राज्य सरकारें इसे निवेश, नौकरी और अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए उठाया गया फैसला बता रही हैं। इसका अर्थ यह निकलता है कि पहले से लागू श्रम क़ानून देश की अर्थ व्यवस्था में रोड़ा अटका रहें थें। क्या देश के गिरते सकल घरेलू उत्पाद का कारण भी यही श्रम क़ानून थें? प्रश्न उठता है कि ये एक प्रतिशत उद्योगपति क्या इन श्रम क़ानून का पालन करते थे?
सरकारों को अपनी नीतियों की असफलता का ठीकरा मज़दूरों पर नहीं फोड़ना चाहिए। हमारे पडोसी देश चीन ने मज़दूर को मज़बूत किया है। परिणाम सामने है।
बस चल रहा था तो देश का अन्नदाता। उसे किसी से शिकायत नहीं थी लेकिन उनके चलने से शिकायत थी क्योंकि अंग्रेज़ी क़ानून महामारी रोग अधिनियम के तहत लॉकडाउन हो चुका था। उल्लंघन करने पर लोकसेवकों ने लोक की हड्डी तक तोड़ देने या जेल भेज देने का ब्रितानी फरमान ज़ारी कर दिया था। पकडे जाने पर सरेआम सड़क पर बैठाकर खतरनाक रसायन से नहला दिया। इन हालातों में भूखी प्यासी जनता अपने अधिकार की मांग कैसे कर सकती है?
टेलीविज़न पर मरकज़ पर संग्राम मचा था। चीन के षड्यंत्र से निपटने की योजना का खुलासा किया जा रहा था। कोरोना जंग में यूरोप और अमेरिका को पीछे छोड़ने के कसीदे पढ़े जा रहे थे लेकिन अगर चर्चा नहीं हो रही थी तो पलायन कर रही देश की एक तिहाई जनसंख्या की। सारे श्रम क़ानून इनको दो जून की रोटी नहीं दिला पाएं। सरकारें स्थानीय स्तर पर सुरक्षा देने में विफल रहीं। ऐसी हालत में ये मज़बूर मज़दूर अगर अपने घर पहुंचने के मूल अधिकार के तहत निकल पड़े तो टेलीविज़न ने उनको अराजक और साम्प्रदायिक बता डाला। इनके पक्ष में आवाज़ उठाने का ठेका लेने वाले 59,000 पंजीकृत मज़दूर संघ कोमा में चले गए। विपक्षी पार्टियों ने अखबार और सोशल मीडिया पर खानापूर्ति कर ली। यदा-कदा फोटो खिचवाने के शर्त पर कुछ समाजसेवी भोजन-पानी का प्रबंध कर रहे थे।
मज़दूर के पास सत्ता को देने के लिए एक वोट के सिवाय कुछ भी तो नहीं है। वो भी राष्ट्रवाद, धर्म, जाति, अगड़े-पिछड़े, दलित आदि उन्मादी नारों में फंस जाता है। अगर नहीं फसें तो एक पैकेट देशी या चंद नोट तो हैं ही। फिर भी नहीं बिके तो सुरक्षा का संकल्प लेने वाली पुलिस है। सत्ता राजनीति से चलती है और राजनीति धन से। जिसके पास धनाभाव हो वही तो मज़दूर है! ऐसे हालात में मज़दूर एक मज़बूर के सिवाय कुछ भी तो नहीं है।
असल में सारा खेल पैसे का है। देश के 71 फीसदी अर्थ पर एक फीसदी लोगों का कब्ज़ा है। जो अधिकतर उद्योगपति हैं। इनके पास रुपया व्यापार से आता हैं। यही लोग उत्पादन करवातें हैं। इनके कंपनियों की बैलेंस शीट से देश के सकल घरेलू उत्पाद का निर्धारण होता है। इनके रोज़गार देने से देश में बेरोज़गारी दर घटती है। यही लोग आयात-निर्यात करतें है जिससे विदेशी मुद्रा आती है। बैंकों का भविष्य इनके जमा और निकासी पर निर्भर है। इनके कागज़ात देश के आर्थिक विकास की दिशा और दशा तय करतें है। ऐसे कुबेरों की पूजा के बिना सत्ता का सञ्चालन संभव नहीं है।
मज़दूर उद्योग की जीवन रेखा और अर्थ व्यवस्था की रीढ़ हैं। उत्पाद बनने से लेकर अंतिम ग्राहक तक पहुंचाने में मज़दूर अहम् भूमिका निभातें हैं। ऐसे में उनका पलायन पूरी अर्थ व्यवस्था को बर्बाद कर देगा, इस बात से सरकार और उद्योगपति सभी परिचित हैं। कहीं मज़दूरों के महाप्रवास को रोकने का यही कारण तो नहीं था? देर से ही सही सरकारों ने इन प्रवासी मज़दूरों के घर वापसी का कार्यक्रम तो चलाया लेकिन ऊँट के मुँह में जीरा जितना। ये भी राजनीतिक दखलंदाज़ी, टीवीबाज़ी और नौकरशाही की संवेदनहीनता की भेंट चढ़ गया।
इस विपत्तिकाल में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, गोवा, महाराष्ट्र और ओडिशा सरकार द्वारा जल्दबाज़ी में श्रम कानूनों में किए गए अस्थाई बदलाव शंका पैदा करतें हैं। हालांकि राज्य सरकारें इसे निवेश, नौकरी और अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए उठाया गया फैसला बता रही हैं। इसका अर्थ यह निकलता है कि पहले से लागू श्रम क़ानून देश की अर्थ व्यवस्था में रोड़ा अटका रहें थें। क्या देश के गिरते सकल घरेलू उत्पाद का कारण भी यही श्रम क़ानून थें? प्रश्न उठता है कि ये एक प्रतिशत उद्योगपति क्या इन श्रम क़ानून का पालन करते थे?
सरकारों को अपनी नीतियों की असफलता का ठीकरा मज़दूरों पर नहीं फोड़ना चाहिए। हमारे पडोसी देश चीन ने मज़दूर को मज़बूत किया है। परिणाम सामने है।
रवींद्र प्रताप सिंह
Bilkul sahi baat likhi gayei hai
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