शराब की आर्थिक सत्ता के आगे नतमस्तक सरकारें
देश के हिन्दू, बौद्ध, जैन और इस्लाम धर्म शराब सेवन से विरत रहने की शिक्षा देतें हैं और इसको दुःख का कारण बतातें हैं। समाज इसका विरोध करता है। हार्वर्ड स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ का मानना है कि ज्यादा शराब के कारण लीवर, उच्च रक्तचाप, हृदय सम्बन्धी बीमारी और कैंसर हो सकता है। उसके अनुसार अमेरिका में हिंसक अपराध के तीन मामलों में से एक में शराब की भूमिका होती है।
धर्म, समाज और विज्ञान के मापदंडों पर घातक शराब, कोरोना महामारी के दौर में भारत की अर्थव्यवस्था के लिए अमृत बन गयी है। विश्वगुरु भारत की सरकारें इस आर्थिक-अमृत को जन-जन तक पहुंचा रही हैं। रेड जोन घोषित देश की राजधानी पर भी कृपा बरस रही है। वो भी पूरे अनुशासन के साथ, ख्याल इतना कि निगाहबनी के लिए भारत तिब्बत सीमा पुलिस को लगा दिया। लॉकडाउन से उपजे संयम के कारण देशभक्त जनता तीन-तीन किलोमीटर लम्बी लाइन में खड़ी होकर आर्थिक-अमृत की खरीद से देश का खज़ाना भर रही है। महंगाई का रोना रोने वाली जनता बेतहासा बढे हुए दामों पर महीने भर के शराब का इंतज़ाम कर ले रही है। शराब के लिए इतनी दीवानगी देखकर इसके राजनीतिक महत्व को समझना सरल हो गया है। इससे पहले तो केवल सुनने को मिलता था कि अमुक नेता शराब बांटकर चुनाव जीत गया। रस की बहती इस गंगा को देखकर चुनावी पंडित खुश हो रहे होंगें।
सरकारों का अपना तर्क है। एक छोटे राज्य के मुख्यमंत्री का कहना है कि अप्रैल महीने में तीन हज़ार करोड़ खर्चे के सापेक्ष में मात्र तीन सौ करोड़ की आमदनी हुई है। एक बड़े राज्य के वित्त मंत्री बतातें हैं कि अप्रैल महीने में 12,141 करोड़ रुपये की मांग थी लेकिन संग्रहण केवल 1,178 करोड़ रुपये ही हो पाए। अब ऐसी आर्थिक आपदा में इस देश की अमीर जनता ही घर में बैठकर शराब के साथ लॉकडाउन का लुफ्त उठा सकती है! सरकारें तो बेचारी हैं? वे खेती नहीं करती हैं, नौकरी नहीं करती हैं और व्यापार भी नहीं करती हैं। फिर भी उनको जनता का बोझ उठाना पड़ता है करें तो करें क्या ?
असल में शराब का अपना अर्थशास्त्र है। अधिकांश राज्यों के राजस्व में दूसरा या तीसरा सबसे बड़ा हिस्सा शराब की बिक्री से आता है। यह राज्यों के कुल कमायी में 10 से 20 प्रतिशत का योगदान करता है। इसी कारण राज्यों ने शराब को जी.एस.टी. के दायरे से बाहर रखा है। जब चाहा टैक्स बढ़ा दिया। जनता और विपक्ष ने शायद ही कभी विरोध किया हो। ये राज्य के सुविधा क्षेत्र की कमाई है। केवल 4 मई को उत्तर प्रदेश ने 100 करोड़, आंध्र प्रदेश ने 68.70 करोड़, कर्नाटक ने 45 करोड़, महाराष्ट्र ने 11 करोड़ रुपये शराब की बिक्री से कमाए। वर्ष 2018-19 में शराब के उत्पाद शुल्क से देश के सभी सरकारों की कुल कमाई लगभग 1 लाख 51 हज़ार करोड़ रुपये थी। उत्तर प्रदेश 25 हज़ार करोड़, कर्णाटक 20 हज़ार करोड़, महाराष्ट्र 15 हज़ार करोड़, पश्चिम बंगाल 11 हज़ार करोड़ और तेलांगना 10 हज़ार करोड़ रूपए कमाकर पहले पांच स्थानों पर थे।
शराब का सेवन देश के लिए नया नहीं है लेकिन कमाई का प्रमुख साधन बनाकर सरकारों द्वारा इसका प्रोत्साहन नया है। 1970 के दशक में महाराष्ट्र में भगोड़े विजय माल्या के पिता विट्टल माल्या तथा हैदराबाद में एक ब्रिटिश कंपनी ने अंग्रेजी शराब का उत्पादन शुरू किया। पश्चिमी सभ्यता का बढ़ता प्रभाव और मध्यम वर्ग के उभार ने शराब को शान-शौकत की चीज बना दिया। उत्पादक कंपनियों ने प्रचार पर प्रतिबन्ध के बावजूद कैसेट, सोडा इत्यादि के नाम पर बड़े सितारों और अर्धनग्न मॉडल्स के द्वारा आभासी प्रचार करवाकर मध्यम वर्ग में अपनी उपास्थित को मज़बूत किया। विजय माल्या द्वारा जारी, मॉडल्स के उत्तेजक वार्षिक कैलेंडर ने इसको नौजवानों में अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया। रही सही कसर सरकार ने पूरी कर दी। गली-मोहल्ले से लेकर गाँव-गाँव तक सरकारी शराब की दुकानें खुल गयी। जिसका नतीजा आज सड़कों पर दिखाई पड़ रहा है। समाज में खुले आम शराब खरीदना एक झिझक का विषय था, लॉकडाउन ने इस शर्म को भी धो डाला।
ऐसा नहीं है की सरकारें बिना शराब की कमाई के नहीं चल सकतीं हैं। गुजरात जैसे संपन्न और बिहार जैसे गरीब राज्य ने शराब बिक्री को प्रतिबंधित करके उदहारण पेश किया है। राष्ट्र निर्माण में शराब खराब थी और रहेगी। शासकों को राष्ट्र और शराब में से एक को चुनना पडेगा।
- रवीन्द्र प्रताप सिंह
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