प्रदेश में लगातार गिर रहा सरकारी शिक्षा का स्तर
हुजै़फा
लखनऊ। आज से दो दशक पहले तक अधिकांश लोग सरकारी स्कूलों में ही पढ़ा करते थे। पहले शिक्षक सिर्फ बच्चों का भविष्य बनाने के लिये ही शिक्षक जैसे महत्वपूर्ण पद के लिये आवेदन करते थे। देश के अधिकतर महान लोग सरकारी स्कूलों में टाट-पटटी और पेड़ के नीचे बैठकर शिक्षा ग्रहण करते थे। यहीं से पढ़े कई लोग देश के शीर्ष नेतृत्व पर पहुंचे और यहां तक की विदेशों मेंं भी देश का मान बढ़ाया। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति बने, नेता और अभिनेता बने, लेखक व इतिहासकार बने यहां तक की हर क्षेत्र में बिना अंग्रेजी भाषा के अपना लोहा मनवाया। मगर आज यहीं सब सफल लोग उन सरकारी स्कूलो मे अपने बच्चों और उनके बच्चों को भेजना पसंद नही करते जहां वह स्वयं शिक्षित हुए वहीं अपने बच्चों को पढ़ाना अपनी शान के खिलाफ समझते है। आखिर वजह क्या हुई की आज सरकारी शिक्षा का स्तर इतना कम हो गया कि स्कूल में छात्रों से ज्यादा शिक्षक है। पहले अमीर और जागीरदार लोग दान-पुण्य के नाम पर स्कूलों का निर्माण करते थे ताकि क्षेत्र के बच्चों को मुफ्त में शिक्षित किया जा सके। किन्तु आज लोग स्कूलों का निर्माण सिर्फ धन कमाने के लिये करते है। आज शिक्षा को व्यवसाय से जोड़ दिया गया है। शिक्षा का व्यावसायीकरण होने से शिक्षा का मतलब ही बदल गया है।
गत वर्ष कोर्ट ने भी सरकारी शिक्षा में सुधार पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि अधिकारी और नेतागण अपने बच्चों को शिक्षा के लिये इन सरकारी स्कूलों में दाखिला कराये ताकि यहां पर सुधार हो सकें। किन्तु अब तक ऐसा कोई मामला प्रकाश में नहीं आया कि किसी अधिकारी या नेता ने अपने बच्चें का दाखिला किसी सरकारी स्कूल में कराया हो। सरकारी बजट और बच्चों को मिलने वाली सुविधाएं चाहे वह किताबें हों, स्कूल डे्स हो या मिड-डे मील हर साल बढऩे के बावजूद सरकारी शिक्षा का स्तर दिन-प्रति-दिन गिरता ही जा रहा है। इस बारे में पड़ताल की तो कुछ सच उजागर हुआ। उ.प्र. माध्यमिक शिक्षक संघ के संरक्षक आर पी मिश्रा ने बताया कि शिक्षा क्षेत्र में सुधार के कई प्रयास सभी सरकारों ने किये मगर वह सुधार भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ते गये। प्राइमरी जो शिक्षा की प्रथम पाठशाला है वहां हजारों शिक्षकों के पद खाली है, इसी तरह माध्यमिक स्कूलों में ४० हजार शिक्षकों के पद खाली है। शिक्षामित्रों के पद विवादित है ऐसे में गुणवत्तापूर्ण सरकारी शिक्षा बेमानी है। आधुनिक शिक्षा यानि कम्प्यूटर शिक्षा के लिये कम्प्यूटर है कक्षा है किन्तु शिक्षक नहीं, खेल के लिये क्षात्र से ६० रुपये सालाना शुल्क लिया जाता है उससे खेल का सामना नहीं आ पाता है। शिक्षकों की भर्ती में भ्रष्टचार किया जाता है। कई मामलों को लेकर हमारा संघ विरोध कर चुका किन्तु जांच के बाद कोई कार्यवायी नहीं हो सकी है। सरकारी शिक्षा में सुधार के लिये योग्यतानुसार शिक्षकों का चयन हो स्कूल को मूल सुविधाएं दी जानी चाहिए। शिक्षक विजय मिश्रा ने कहा कि सरकारी शिक्षा का स्तर गिर तो रहा है किन्तु उसे फैक्ल्टी डेवलपमेंट प्रोग्राम और मोटीवेशन प्रोग्राम से सुधारा जा सकता है। शिक्षकों में भी दण्ड का प्रावधान होना चाहिए। यदि सरकार चाहे तो वह इसे कर सकती है। बीच-बीच में शिक्षकों के प्रोत्साहन के लिये कार्यशालाएं होनी चाहिए जिसमें उन्हें शिक्षा के तरीकों के बारे में बताया जाये। पूर्व शिक्षक हरिराम त्रिपाठी ने कहा-सरकारी शिक्षा का स्तर गिरने का सबसे बड़ा कारण शिक्षकों का वेतन है, उनके वेतन की गारण्टी के कारण वह शिक्षा का कार्य पूरी तरह नहीं करते जिस लिये उनकी नियुक्ती की गयी है। इस वेतन के कारण शिक्षकों की गुणवत्ता में कमी आयी है। बहुत से शिक्षक तो स्कूल जाते ही नहीं और वेतन प्राप्त करते रहते है। सरकारी स्कूलों में लक्ष्य पूरा करने के लिये उन बच्चों का एडमीशन भी कागजों में कर लिया जाता जो पढऩा ही नहीं चाहते जिससे स्कूलों में भी हो गयी और शिक्षकों पर बोझ बढ़ गया। वही प्राइवेट स्कूलों में बच्चों के हिसाब से शिक्षकों को रखा जाता और परिणाम के लिये उनकी जवाबदेही तय की जाती किन्तु सरकारी स्कूलों में ऐसा नहीं होता। उन्होने बताया सर्व शिक्षा अभियान में भी बहुत से फर्जी बच्चों का कागजों पर दाखिला दिखा दिया गया जिससे शिक्षा का ग्राफ नीचे आ गया।
लखनऊ। आज से दो दशक पहले तक अधिकांश लोग सरकारी स्कूलों में ही पढ़ा करते थे। पहले शिक्षक सिर्फ बच्चों का भविष्य बनाने के लिये ही शिक्षक जैसे महत्वपूर्ण पद के लिये आवेदन करते थे। देश के अधिकतर महान लोग सरकारी स्कूलों में टाट-पटटी और पेड़ के नीचे बैठकर शिक्षा ग्रहण करते थे। यहीं से पढ़े कई लोग देश के शीर्ष नेतृत्व पर पहुंचे और यहां तक की विदेशों मेंं भी देश का मान बढ़ाया। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति बने, नेता और अभिनेता बने, लेखक व इतिहासकार बने यहां तक की हर क्षेत्र में बिना अंग्रेजी भाषा के अपना लोहा मनवाया। मगर आज यहीं सब सफल लोग उन सरकारी स्कूलो मे अपने बच्चों और उनके बच्चों को भेजना पसंद नही करते जहां वह स्वयं शिक्षित हुए वहीं अपने बच्चों को पढ़ाना अपनी शान के खिलाफ समझते है। आखिर वजह क्या हुई की आज सरकारी शिक्षा का स्तर इतना कम हो गया कि स्कूल में छात्रों से ज्यादा शिक्षक है। पहले अमीर और जागीरदार लोग दान-पुण्य के नाम पर स्कूलों का निर्माण करते थे ताकि क्षेत्र के बच्चों को मुफ्त में शिक्षित किया जा सके। किन्तु आज लोग स्कूलों का निर्माण सिर्फ धन कमाने के लिये करते है। आज शिक्षा को व्यवसाय से जोड़ दिया गया है। शिक्षा का व्यावसायीकरण होने से शिक्षा का मतलब ही बदल गया है।
गत वर्ष कोर्ट ने भी सरकारी शिक्षा में सुधार पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि अधिकारी और नेतागण अपने बच्चों को शिक्षा के लिये इन सरकारी स्कूलों में दाखिला कराये ताकि यहां पर सुधार हो सकें। किन्तु अब तक ऐसा कोई मामला प्रकाश में नहीं आया कि किसी अधिकारी या नेता ने अपने बच्चें का दाखिला किसी सरकारी स्कूल में कराया हो। सरकारी बजट और बच्चों को मिलने वाली सुविधाएं चाहे वह किताबें हों, स्कूल डे्स हो या मिड-डे मील हर साल बढऩे के बावजूद सरकारी शिक्षा का स्तर दिन-प्रति-दिन गिरता ही जा रहा है। इस बारे में पड़ताल की तो कुछ सच उजागर हुआ। उ.प्र. माध्यमिक शिक्षक संघ के संरक्षक आर पी मिश्रा ने बताया कि शिक्षा क्षेत्र में सुधार के कई प्रयास सभी सरकारों ने किये मगर वह सुधार भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ते गये। प्राइमरी जो शिक्षा की प्रथम पाठशाला है वहां हजारों शिक्षकों के पद खाली है, इसी तरह माध्यमिक स्कूलों में ४० हजार शिक्षकों के पद खाली है। शिक्षामित्रों के पद विवादित है ऐसे में गुणवत्तापूर्ण सरकारी शिक्षा बेमानी है। आधुनिक शिक्षा यानि कम्प्यूटर शिक्षा के लिये कम्प्यूटर है कक्षा है किन्तु शिक्षक नहीं, खेल के लिये क्षात्र से ६० रुपये सालाना शुल्क लिया जाता है उससे खेल का सामना नहीं आ पाता है। शिक्षकों की भर्ती में भ्रष्टचार किया जाता है। कई मामलों को लेकर हमारा संघ विरोध कर चुका किन्तु जांच के बाद कोई कार्यवायी नहीं हो सकी है। सरकारी शिक्षा में सुधार के लिये योग्यतानुसार शिक्षकों का चयन हो स्कूल को मूल सुविधाएं दी जानी चाहिए। शिक्षक विजय मिश्रा ने कहा कि सरकारी शिक्षा का स्तर गिर तो रहा है किन्तु उसे फैक्ल्टी डेवलपमेंट प्रोग्राम और मोटीवेशन प्रोग्राम से सुधारा जा सकता है। शिक्षकों में भी दण्ड का प्रावधान होना चाहिए। यदि सरकार चाहे तो वह इसे कर सकती है। बीच-बीच में शिक्षकों के प्रोत्साहन के लिये कार्यशालाएं होनी चाहिए जिसमें उन्हें शिक्षा के तरीकों के बारे में बताया जाये। पूर्व शिक्षक हरिराम त्रिपाठी ने कहा-सरकारी शिक्षा का स्तर गिरने का सबसे बड़ा कारण शिक्षकों का वेतन है, उनके वेतन की गारण्टी के कारण वह शिक्षा का कार्य पूरी तरह नहीं करते जिस लिये उनकी नियुक्ती की गयी है। इस वेतन के कारण शिक्षकों की गुणवत्ता में कमी आयी है। बहुत से शिक्षक तो स्कूल जाते ही नहीं और वेतन प्राप्त करते रहते है। सरकारी स्कूलों में लक्ष्य पूरा करने के लिये उन बच्चों का एडमीशन भी कागजों में कर लिया जाता जो पढऩा ही नहीं चाहते जिससे स्कूलों में भी हो गयी और शिक्षकों पर बोझ बढ़ गया। वही प्राइवेट स्कूलों में बच्चों के हिसाब से शिक्षकों को रखा जाता और परिणाम के लिये उनकी जवाबदेही तय की जाती किन्तु सरकारी स्कूलों में ऐसा नहीं होता। उन्होने बताया सर्व शिक्षा अभियान में भी बहुत से फर्जी बच्चों का कागजों पर दाखिला दिखा दिया गया जिससे शिक्षा का ग्राफ नीचे आ गया।
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